कल्पना कीजिए—1922 का एक मद्धम, सन्नाटा भरा अस्पताल वार्ड। बिस्तरों की कतारें, जिन पर बच्चे लेटे हैं—अधिकतर बेहोश, उनके दुर्बल शरीर डायबिटिक कीटोएसिडोसिस की गिरफ्त में। हवा में निराशा ठहरी हुई है। माता-पिता चुपचाप अपने बच्चों के पास बैठे हैं, नींद से सूनी आँखें, बस अंत की प्रतीक्षा में। कोई इलाज नहीं था। केवल भूखा रखकर मौत को कुछ दिन या हफ्तों के लिए टालना।
फिर, कुछ असाधारण हुआ।
वैज्ञानिकों की एक टीम वार्ड में दाखिल हुई—फ्रेडरिक बैंटिंग, चार्ल्स बेस्ट, जेम्स कॉलिप और जॉन मैक्लियोड—अपने हाथों में एक नई, अनदेखी दवा की शीशियां लिए हुए: इंसुलिन। वे एक-एक करके बिस्तर दर बिस्तर गए, बच्चों को इस नाजुक सी उम्मीद का इंजेक्शन लगाने लगे।
जब वे अंतिम बच्चे तक पहुँचे, तभी कमरे में कुछ हिला। पहला बच्चा, जिसे इंसुलिन दी गई थी, ने आँखें खोलनी शुरू कीं। फिर दूसरा। फिर एक और। सन्नाटा टूटने लगा। आहें, आँसू, और फिर अविश्वास से भरी खुशियों की आवाजें उठने लगीं। कोमा से बच्चे बाहर आने लगे। पीले गालों पर गुलाबी रंग लौट आया। जो कमरा पहले शोक में डूबा था, वहां अब उम्मीद की लौ जल उठी।
वो क्षण केवल एक चिकित्सीय चमत्कार नहीं था—वह तो एक पुनर्जागरण था।
बैंटिंग और बेस्ट, मैक्लियोड के मार्गदर्शन में और कॉलिप की मदद से, टोरंटो विश्वविद्यालय में इंसुलिन की खोज और शुद्धिकरण कर चुके थे। और फिर, एक निःस्वार्थ निर्णय लिया—उन्होंने इंसुलिन का पेटेंट विश्वविद्यालय को मात्र 1 डॉलर में बेच दिया, यह मानते हुए कि किसी को जीवन बचाने से मुनाफा नहीं कमाना चाहिए। 1923 में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला।
लेकिन कोई पुरस्कार उस क्षण की कीमत नहीं आँक सकता—जब मृत्यु के दरवाज़े से लौटे बच्चे आँखें खोलने लगे, जब विज्ञान ने देवदूत का रूप ले लिया।
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