कहानियां बच्चों के बौद्धिक एवं चरित्र के निर्माण में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। संयुक्त परिवार में दादा-दादी एवं नाना-नानी बच्चों को कहानियां सुनाया करते थे। मनोरंजन के साथ-साथ बच्चों के मानस-पटल पर वे एक अमिट छाप छोड़ती थीं। हमारे प्रकाशन का प्रयास है कि अभिभावक इन सचित्र कथाओं को बच्चों को पढ़कर सुनाएँ तथा उन्हें स्वंय पढ़ने के लिए प्रेरित करें।
इस लेख में तेनालीराम की प्रसिद्ध कहानियां संलग्न हैं। वह अपनी वाक्पटुता से राजा कृष्णदेव राय के सभी प्रश्नों का उत्तर बहुत ही मनोरंजक और सहजभाव में देते थे। इसी कारण वह राजा के सबसे प्रिय थे। यह कहानियां बच्चों को अनोखे स्वरूप में शिक्षा प्रदान करती है।
Tenaliram ki kahaniyan |
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 1 - सच बोलने वाला सलाहकार
कभी विजयनगर के बड़े राज्य पर बहादुर शासक राजा कृष्णदेव राय का शासन था। हम्पी विजयनगर की राजधानी थी। कृष्णदेव राय का दरबार 'भुवन विजय' हमेशा जनता के प्रति न्याय और दयालुता के लिए जाना जाता था। भुवन विजय अपने 'अष्ट दिग्गज' के लिए प्रसिद्ध था, क्योंकि उन आठों लोगों में अलग-अलग अनोखे गुण थे।
वे आठ दिग्गज थे-अलासनी पेड्डना, नंदी थिमन्ना, धुर्जटी, मध्यगरी मालन, पिंगल सूरन, तेनालीराम कृष्णुडू, अचाला राजू राम भद्रुदू और राम राजा भूषणूडू। ये अपने-अपने क्षेत्र में बहुत प्रतिभावान और विद्वान् थे। सभी राजा के दरबार में रहते थे और राजा को सही निर्णय लेने में मदद करते थे।
परंतु इन सबमें तेनालीराम अपने जन्मजात गुण वाक्पटुता और व्यंग्य के कारण राजा को सबसे अधिक प्रिय था।
राजा ने एक नया तालाब बनवाया था। अपने आठों दिग्गजों को लेकर वे तालाब देखने गए। पानी को देखते हुए राजा ने अपने विद्वानों से पूछा, "इस तालाब में पानी कैसा लगता है?"
नंदी थिमन्ना ने कहा, "इस तालाब का पानी बिल्कुल साफ है।" मध्यगरी मालन बोले, "यह पारदर्शी और चमकदार है।"
इसी प्रकार सभी ने अपनी-अपनी तरह से विशेषण लगाकर कहा। तेनालीराम ने अपनी बारी आने पर कहा, "महाराज, जैसा तालाब आपने बनवाया है, पानी ने उसी का आकार ले लिया है।"
तेनालीराम ने राजा की चापलूसी किए बिना बिल्कुल सीधा उत्तर दिया। राजा यही चाहते थे कि एक ऐसा सलाहकार हो जो हमेशा सच बोले। राजा तेनालीराम की वाक्पटुता से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने स्पष्टवादिता के लिए तेनालीराम की बहुत प्रशंसा की।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी - 2 सुनहरे आम
राजा कृष्णदेव राय की माँ बहुत ही धार्मिक विचारों की महिला थीं। राजा को अपनी माँ से बहुत स्नेह था।
अपने जीवनकाल में उन्होंने बहुत सारा दान-पुण्य और तीर्थयात्राएं की थीं। उनके बीमार होने पर राजा ने शहर के सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक बुलवाये, पर वे उन्हें स्वस्थ नहीं कर सके। माँ का शरीर बूढ़ा होने के कारण साथ नहीं दे रहा था।
बीमारी की हालत में भी राजा की माँ ने राजा से आम खाने की इच्छा प्रकट की। राजा ने आम मंगवाया, पर आम आने से पहले ही माँ ने हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं। माँ की अंतिम इच्छा पूरी न कर पाने का दुःख राजा को सताने लगा। राजा बहुत उदास हो गए।
अंतिम क्रिया कर्म करने आए ब्राह्मणों को राजा की उदासी का कारण पता चला, तो उन्होंने राजा से धन प्राप्ति की इच्छा से कहा, "महाराज, आपकी माँ की अंतिम इच्छा आम खाने की थी, जो पूरी नहीं हो पाई। उनकी आत्मा की शांति के लिए यदि कुछ सुनहरे आम ब्राह्मणों को दान दिए जाएं तो अच्छा होगा।"
ब्राह्मणों की आम दान की बात राजा को अच्छी लगी। उन्होंने ठोस सोने के दस आम बनवाए और ब्राह्मणों को दान कर दिए। ब्राह्मणों ने राजा से पूजा करवाई, दान लिया और खुशी-खुशी घर चले गए। वे राजा को ठगने में सफल हो गए थे।
तेनालीराम ने यह सब देखा तो उसे ब्राह्मणों का तर्क जरा भी समझ नहीं आया। उसने सोचा कि भला ब्राह्मण के हाथ का आम मृतात्मा को कैसे संतुष्ट कर सकता है? यह जरूर ही ब्राह्मणों की, राजा को ठगने की चाल है। मन ही मन तेनालीराम ने ब्राह्मणों को पाठ पढ़ाने का सोचा।
कुछ दिनों बाद तेनालीराम ने ब्राह्मणों को अपने घर पर आमंत्रित किया और उनसे कहा, "कुछ समय पहले मेरी माँ की मृत्यु हो गई थी। मैं उनकी अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर पाया था। उनकी इच्छा थी कि मैं उन्हें लोहे के गरम सरिया से मारूं। मैं ऐसा कर नहीं पाया। अपने दिल में अधूरी इच्छा लिए हुए वह चली गयीं और उनकी आत्मा अभी तक असन्तुष्ट घूम रही है। राजा की माँ की आत्मा की शांति के लिए जैसे आपने सुनहरे आम-दान की बात की थी, उसी तरह मेरी माँ की आत्मा की शांति भी आप ही को करनी है। मैं अपनी माँ के लिए लाल गर्म लोहे की सरिया से आप लोगों को मारूंगा, जिससे उनकी आत्मा को शांति मिल जाएगी।"
सामने ही तेनालीराम का सेवक लाल गर्म सरिया लेकर खड़ा था। डर के मारे सारे ब्राह्मण कांपने लगे। सब के सब तेनालीराम के पैरों पर गिरकर क्षमा याचना करने लगे। तेनालीराम ने राजा के आम लौटाने तथा राजा से क्षमा याचना करने के लिए कहा।
अगले दिन राजा को उनके दान में दिए सुनहरे आम वापस मिल गए, क्योंकि ब्राह्मणों को उनके किए का फल मिल चुका था।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी - 3 तेनाली ने अपना सिर छुपाया
राजा कृष्णदेव राय चित्रकला में बहुत रुचि रखते थे। उनका अपना एक चित्रकला संग्रहालय था, जिसमें उनके चुने हुए उत्तम चित्र थे। एक दिन जब तेनालीराम संग्रहालय देख रहा था, तब उसे एक अप्सरा का चित्र दिखाई दिया, जिसने बहुत कम वस्त्र पहन रखे थे। तेनालीराम को यह चित्र अच्छा नहीं लगा। उसने मन ही मन सोचा, "स्त्री की इज्जत होनी चाहिए, चाहे वह कला ही क्यों न हो..." उसने रंग और तूलिका लेकर उस चित्र में ही परिवर्तन करना शुरू कर दिया।
एक दरबारी भी वहां आया हुआ था। उसने तेनालीराम को ऐसा करते देखा तो उसी समय राजा के पास जाकर सारी बात बता दी। क्रुद्ध राजा ने तुरंत सेवकों को भेजकर तेनालीराम को बुलवाया।
"तुमने मेरे संग्रह से छेड़-छाड़ करने की कोशिश कैसे की? निकल जाओ और दरबार में दुबारा अपना चेहरा मत दिखाना...।" राजा ने तेनालीराम को देखते ही गुस्से में कहा। सिर झुकाकर तेनालीराम ने राजा को अभिवादन किया और चला गया।
अगले दिन दरबार में तेनालीराम ने अपने सिर और चेहरे को एक बड़े से घड़े से छुपाए हुए प्रवेश किया। उसे देखकर सभी लोग हैरान थे। राजा ने भी उसे नहीं पहचाना और पूछा, "तुम कौन हो और तुमने अपने सिर पर घड़ा क्यों पहन रखा है?"
तेनालीराम ने झुककर नम्रतापूर्वक कहा, "महाराज, मैं तेनालीराम हूं। कल आपने मुझे दरबार में अपना चेहरा नहीं दिखाने का आदेश दिया था, इसलिए मैंने उसे घड़े में छुपा लिया है।"
पूरा दरबार हंसी से गूंज उठा। राजा भी अपनी मुस्कुराहट रोक नहीं पाए, उन्होंने तेनालीराम को क्षमा कर दिया और शेर का घड़ा उतारने के लिए कहा।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 4 - नाई का ईनाम
एक दिन सुबह सैर करके राजा कृष्णदेव राय अपने कमरे में आकर कुर्सी पर बैठे ही थे कि उनकी आँख लग गई।
राजा का नाई राजा की दाढ़ी बनाने आया तो उन्हें कुर्सी पर सोता हुआ देख उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसे राजा की दाढ़ी बनानी थी और राजा सो रहे थे... वह क्या करे, क्या न करे, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह सोचने लगा, "क्या मैं बाद में आऊं... पर देर से आने के लिए संभव है मुझे डांट पड़े... क्या राजा को जगा दूं.. संभव है जगाने पर राजा नाराज हो जाएं.. मै करूं तो क्या करूं?" परेशान नाई ने बहुत सोचा और फिर बिना राजा को जगाए उनकी दाढ़ी बनाकर, ईश्वर से रक्षा करने की प्रार्थना करता हुआ चला गया।
कुछ समय बाद राजा उठ गए और दाढ़ी बनवाने के लिए नाई को बुलवाया, पर जब उन्होंने शीशे में अपना चेहरा देखा तो उन्हें अपनी दाढ़ी बनी हुई दिखाई दी। राजा आश्चर्यचकित रह गए। नाई ने राजा का संदेश पाकर सोचा अब उसे सजा जरूर मिलेगी। भय से कांपता हुआ वह राजा के सामने उपस्थित हुआ। प्रसन्न राजा ने नाई से कहा "काम के प्रति तुम्हारी लगन और निष्ठा से मैं बहुत प्रसन्न हूं। तुम्हें जो चाहिए, मांग लो। मेरी पहुँच में हुआ तो जरूर दूंगा।"
नाई ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, "महाराज, समाज में पुजारियों को बहुत सम्मान मिलता है। यदि संभव हो तो मुझे पुजारी बनवा दें।"
राजा ने धार्मिक संस्कार करने वाले पुजारियों को बुलवाया। काफी तर्क-वितर्क हुआ। कोई भी पुजारी मन से ऐसे किसी संस्कार के लिए तैयार नहीं था पर किसी में राजा को रुष्ट करने का साहस भी नहीं था। अंत में नाई को पुजारी बनाने के लिए एक संस्कार करने का निश्चत हुआ।
इस संस्कार के लिए एक शुभ दिन निर्धारित किया गया। राजा के आदेश पर तैयारियां प्रारम्भ हो गई। तेनालीराम ने भी इस संस्कार के विषय में सुना, तो वह सोचने लगा, "राजा को इन सब फालतू के कामों में नहीं उलझना चाहिए। एक शासक को यह सब शोभा नहीं देता है। मुझे राजा को जरूर बताना चाहिए...।"
तेनालीराम ने एक कुत्ता लिया और राजकीय उद्यान में बने तालाब के पास गया। वह तालाब में कुत्ते को नहलाता और फिर बाहर निकालकर कंघा करता था। वह बार-बार इसी क्रिया को दोहरा रहा था।
बागीचे में टहलते हुए राजा ने तेनालीराम को यह करते हुए देखा, तो उन्होंने हंसते हुए पूछा, "क्यों तेनालीराम, तुम इस बेचारे कुत्ते को क्यों सता रहे हो? इसकी आँखें देखो, लगता है अभी रो पड़ेगा।"
तेनालीराम ने कहा, "महाराज, में तो इसे मात्र चितकबरा बनाने की कोशिश कर रहा हूँ।" राजा और जोर से हँसते हुए बोले, "पागल हो क्या? यह कुत्ता भला चितकबरा कैसे बन सकता है?" महाराज, यदि संस्कार द्वारा नाई पुजारी बन सकता है, तो यह कुत्ता भी तो चितकबरा बन सकता है...।
राजा गम्भीर हो गए। तेनालीराम की बात उन्हें समझ आ गई थी। संस्कार की सारी तैयारियां उन्होंने तुरंत बंद करवा दाँ और नाई को इनाम देकर विदा कर दिया।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 5 - तेनालीराम और चोर
एक रात कुछ चोरों ने तेनालीराम के घर चोरी करने की योजना बनाई। वे तेनालीराम के घर के पीछे रखे एक बड़े ड्रम के पास छुप गए और तेनाली दंपत्ति के सोने की प्रतीक्षा करने लगे। किसी तरह चतुर तेनालीराम को उनकी योजना का पता चल गया। वह अकेला उन चोरों से भिड़ नहीं सकता था, इसलिए उसने एक योजना बनाई।
तेनालीराम ने अपने घर का कीमती सामान इकट्ठे करके उन्हें सुरक्षित रख दिया और फिर ऊंची आवाज में अपनी पत्नी से बोला, "प्रिय, आजकल चोरियां कुछ अधिक ही बढ़ गई हैं। क्या पता कभी हमारे घर की बारी आ जाए... हमें अपने बगीचे के कुएं में अपना सोना और आभूषण छुपा देने चाहिए।" तेनालीराम ने एक बड़े से बक्से में ईंट-पत्थर भरे और दोनों ने उसे ले जाकर कुएं में डाल दिया।
छपाऽऽऽक... जोर से आवाज हुई और बक्सा पानी में डूब गया। अंदर आकर दोनों पति-पत्नी चैन की नींद सो गए।
चोरों ने तेनालीराम की सारी बातें सुन ली, क्योंकि वे उसके घर के पीछे ही छुपे हुए थे। छपाऽऽऽक... की आवाज भी सुनी। उन्होंने सोचा कि अब घर में जाने की मुसीबत क्यों उठाई जाए... सारी कीमती चीजें तो कुएं में ही हैं, इसलिए वे कुएं के पास आ गए।
कुआं बहुत गहरा था और पानी भी बहुत था। चोरों ने सोचा कि अगर नीचे पानी में उतरेंगे, तो डूब जाएंगे। दूसरे चोर ने कहा, "हम कुंए से पानी बाहर निकाल देते हैं, जिससे हमें माल आसानी से मिल जाएगा।" उसकी यह बात उसके साथी को पसंद आ गई और दोनों मिलकर पानी निकालने लगे। चोर सारी रात कुंए से पानी निकालते रहे। पानी से बगीचे में लगे सभी पौधों की अच्छी सिंचाई हो गई।
सुबह हुई, प्रभात की लालिमा आकाश पर छाने लगी थी।तेनालीराम सुबह उठकर, बाहर आए तो देखा कि पौधों की अच्छी सिंचाई हो गई है। चोर अपनी पूरी शक्ति से पानी निकालने में लगे हुए हैं। तेनालीराम ने उनसे कहा, "बस करो भाई, अच्छी सिंचाई हो गई है।"
यह सुनकर चोर बेचारे डर के मारे सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 6 - तेनालीराम की चित्रकारी
राजा कृष्णदेव राय ने एक बहुत बड़ा महल बनवाया। उनकी इच्छा महल की दीवारों को चित्रकारी से सजाने की थी। एक प्रसिद्ध चित्रकार को यह काम सौंपा गया। साल भर बाद चित्रकारी का काम पूरा हो गया। राजा अपने आठ दिग्गजों एवं दरबारियों के साथ महल देखने गये। चित्रकार ने बहुत अच्छी चित्रकारी की थी। राजा चित्रकार की चित्रकारी से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें खुद पर गर्व हो रहा था कि उन्हें इतना कुशल चित्रकार मिला।
तभी तेनालीराम ने एक चित्र राजा को दिखाया, जिसका एक अंग नहीं था। राजा आश्चर्यचकित हुए, परंतु उस कमी को अनदेखा करने के भाव से उन्होंने तेनाली से कहा, "तुम उस अंग की कल्पना करो, यही तो इस चित्रकारी की विशेषता है।" उत्तर सुनकर तेनालीराम को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने सोचा,
"ठीक है कि राजा ने प्रसिद्ध चित्रकार से चित्रकारी करवाई है, पर गलती को तो स्वीकार करना चाहिए।" उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह राजा को यह बताकर ही रहेगा कि इंसान को सच हमेशा स्वीकार करना चाहिए, चाहे वह कितना भी कड़वा क्यों न हो।
कुछ दिनों बाद तेनालीराम ने दरबार में जाकर राजा से कहा, "आपके महल से प्रेरित होकर मैंने भी चित्रकारी की है और उसकी प्रदर्शनी लगाई है। कृपया मेरी प्रदर्शनी में चलकर मेरा मान बढ़ायें।"
राजा तेनालीराम के कहने पर प्रदर्शनी देखने गये और वहां जो कुछ उन्होंने देखा, उसे देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए।
तेनालीराम ने अनोखी पेंटिंग चारों ओर लगा रखी थीं। किसी चित्र में हाथ था, तो किसी में पैर... राजा ने पूछा, "माफ करना, मुझे यह चित्रकारी अच्छी नहीं लगी। तुमने अलग-अलग अंग बनाये हैं, पूरा शरीर किधर है?"
तेनाली मुस्कराकर बोला, "महाराज, लोगों को उस अंग की कल्पना स्वयं करनी चाहिए। यही तो इन चित्रों की सुंदरता है।" राजा को अपनी कही बात याद आ गई। वह तेनालीराम का इशारा समझ गये और शर्मिंदा हो गए।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 7 - लाल मोर
राजा कृष्णदेव राय पक्षियों से बहुत प्रेम करते थे। उनके महल में दुर्लभ पक्षियों का अच्छा संग्रह था। एक दिन एक दरबारी ने पुरस्कार के लालच में एक चाल चली। उसने एक मोर खरीदा और एक चित्रकार को कुछ पैसे देकर उसे लाल रंग में रंगवा लिया। चित्रकार ने इतनी सफाई से उसे रंगा कि वह सचमुच का लाल मोर लग रहा था।
दरबारी उसे लेकर राजा के पास गया और बोला "महाराज, मोर की यह एक दुर्लभ जाति है। घने जंगलों से बहुत कठिनाई से इसे मैं आपके लिए पकड़कर लाया हूं। आपके पक्षियों के संग्रह में यह खूब जंचेगा।"
पक्षी को पाकर राजा प्रसन्न भी हुए और आश्चर्यचकित भी। उन्होंने दरबारी को मोर के बदले एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दीं। अपनी चाल की सफलता पर दरबारी बहुत खुश था। उसने झुककर राजा का अभिवादन किया और वहां से चला गया।
दरबार में तेनालीराम भी उपस्थित था। उसे कुछ गड़बड़-सा लगा। वह पक्षी के पास गया, तो उसे रंग की महक आई। पलक झपकते वह दरबारी की चालाकी समझ गया।
अगले दिन तेनालीराम ने पांच मोर खरीदे। जिस चित्रकार ने दरबारी के लिए मोर रंगा था, उसे बुलवाया। तेनालीराम ने उसे पांचों मोरों को रंगने के लिए कहा। उन मोरों को रंगवाकर वह पक्षियों एवं चित्रकार को लेकर दरबार में गया।
राजा उन पक्षियों को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने तेनालीराम से पूछा, "दरबारी तो इसे दुर्लभ पक्षी कह रहा था, पर तुम्हें इतने सारे पक्षी कहां से मिल गए?"
तेनालीराम ने राजा से कहा कि, "पहले आप इन पांचों मोरों के बदले मुझे हजार स्वर्ण मुद्राएं दीजिए, फिर बताता हूं।" राजा ने स्वीकृति दे दी। तब उसने कहा, "महाराज, आप जरा इन पक्षियों के पास आकर इन्हें सूंचें।"
राजा को जब पता लगा कि ये सारे पक्षी रंगे हुए हैं, तो क्रोधित होकर कहा, "मेरे साथ यह धोखा करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, मैं तुम्हें मृत्यु दंड दूंगा।"
तेनालीराम ने कहा, "महाराज, कल आपने दरबारी से जो लाल मोर खरीदा था, उसे इन्हीं महानुभाव ने रंगा था।"
राजा के पूछने पर चित्रकार ने स्वीकार कर लिया कि दरबारी के कहने पर ही उसने मोर को लाल रंग में रंगा था। उसने कहा, "महाराज यदि मैं जानता कि दरबारी आपको धोखा देने के लिए ऐसा करवा रहा है, तो मैं ऐसा कभी भी नहीं करता।"
राजा कृष्णदेव ने चित्रकार को उसकी उत्तम चित्रकारी के लिए पुरस्कृत किया और दरबारी को उसके छल के लिए सजा दी।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 8 - चतुर व्यापारी
राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम से पहेलियां पूछने में बहुत आनन्द आता था। एक दिन राजा ने तेनालीराम से पूछा, "तेनाली, हमारे में सबसे चतुर कौन हैं और कौन सबसे मूर्ख?"
तेनालीराम पलभर के लिए सोचकर बोला, "महाराज, एक व्यापारी सबसे चतुर है और पुरोहित जी सबसे मूर्ख।"
राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा, "क्या तुम इसे साबित कर सकते हो?"
तेनालीराम ने कहा कि वह इस बात को साबित कर सकता है। उसने पुरोहित को बुलवाया और कहा, "बुद्धिमान व्यक्ति, राजा की इच्छा है कि आप अपनी चोटी मुंडवा दें।"
तेनालीराम की बात सुनकर पुरोहित सकते में आ गया। उसने कहा, "चोटी तो हिन्दुओं का गर्व होता है। मैंने वर्षों से इसे संभालकर रखा है। इस पर मुझे गर्व है। फिर भी यदि आपकी इच्छा है तो मैं इसे मुंडवा तो लूंगा, पर इसके बदले में मुझे क्या मिलेगा?"
राजा ने कहा, "जितना चाहो उतना धन दूंगा।" तब पुरोहित ने पांच स्वर्ण मुद्राओं के बदले अपनी चोटी मुंडवा ली और दरबार से चला गया।
तेनालीराम ने अब शहर के सबसे अमीर व्यापारी को बुलवाया। उसे जब राजा की इच्छा बताई तो वह बोला "मैं अपनी चोटी तो मुंडवा लूंगा, पर मैं ठहरा गरीब आदमी। जब मेरे भाई की शादी हुई तो अपनी चोटी के लिए मैंने पांच हजार स्वर्ण मुद्राएं खर्च की थीं। जब मेरी पुत्री का विवाह हुआ तो मुझे दस हजार स्वर्ण मुद्राएं देनी पड़ीं। अपनी इस चोटी को बचाना मुझे बहुत मंहगा पड़ा है।"
तब राजा ने कहा, "तुम अपनी चोटी मुंडवा लो, तुम्हारा सारा घाटा पूरा कर दिया जाएगा।"
अमीर व्यापारी को पन्द्रह हजार स्वर्ण मुद्राएं दे दी गईं। नाई जब उसकी चोटी काटने के लिए बढ़ा, तो व्यापारी ने कहा, “देखो भाई, अब यह चोटी मेरी नहीं है। यह राजा की है। बहुत सावधानी से मूंडना। मूंडते समय यह जरूर याद रखना कि यह राजा की चोटी है।"
राजा कृष्णदेव यह सुनकर आगबबूला हो गए और बोले, "तुम्हारी यह कहने की हिम्मत कैसे हुई? क्या मैं पागल हो गया हूं, जो मैं अपनी चोटी मुंडवाऊंगा?" राजा ने सिपाहियों को व्यापारी को बाहर निकालने का आदेश दे दिया।
तेनालीराम मुस्कराया। राजा का क्रोध शांत होने पर उसने कहा, "महाराज, क्या आपने देखा... किस तरह व्यापारी ने पन्द्रह हजार स्वर्ण मुद्राएं आपसे ले लीं और अपनी चोटी भी सुरक्षित रख ली, जबकि ब्राह्मण ने चोटी मुंडवा ली और वह भी पांच स्वर्ण मुद्राओं में।"
राजा कृष्णदेव राय तेनालीराम के बुद्धिमानी की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 9 - सपनों का महल
एक बार चांदनी रात में राजा कृष्णदेव राय अपने महल के छज्जे पर ठंडी हवा के झोंके ले रहे थे। ऐसे में राजा को छज्जे पर बैठना बहुत अच्छा लग रहा था। थोड़ी ही देर में उनकी आंख लग गई और वे सपनों की दुनिया में चले गए।
सपने में उन्होंने एक जादुई महल देखा जो हवा में उड़ रहा था। संगमरमरी दीवारों पर रंग-बिरंगे पत्थर लगे थे और उसमें ऐशो-आराम की सारी व्यवस्था थी। हवा में तैरता हुआ वह महल दूर से चांद की तरह लग रहा था।
सुबह होने पर भी राजा सपनों की दुनिया से बाहर नहीं निकल पाए। अब उन्हें वैसा ही महल चाहिए था। चिंता के कारण वह बीमार पड़ गए। उन्होंने अपने राज्य में घोषणा करवा दी कि, "जो भी राजा के सपने का महल बनाने में सफल होगा, उसे राजा की ओर से एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दी जाएंगी। घोषणा सुनकर सभी जानना चाहते थे कि जादुई महल क्या है, कैसा है?
कोई कहता "क्या राजा पागल हो गए हैं..." कुछ लालची लोग राजा को मूर्ख बनाकर धन लेने के लिए झूठी आशा भी देने लगे।
इस सब में महीना गुजर गया। राजा सारे काम छोडकर सिर्फ अपने सपने के महल के बारे में सोचते रहते। सभी दरबारी भी परेशान हो गए थे। हारकर दरबारियों ने तेनालीराम से सलाह मांगी।
तेनालीराम ने एक योजना बनाई। उसने राजा से कुछ दिनों की छुट्टी मांगी, जिसे राजा ने स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बीत गए। एक दिन अचानक दरबार में एक बूढ़ा आदमी दौड़ता हुआ आया और राजा के पैरों पर गिरकर, गिड़गिड़ाता हुआ बोला, "महाराज, मुझे बचाइये, मेरा परिवार भूख से मर जाएगा।"
राजा ने उसे उठाया और उससे सारी बात पूछी। वह बूढ़ा सिसकता हुआ बोलने लगा, "मैं लुट गया हूं। मैंने अपनी पुत्री के विवाह के लिए कुछ पैसे बचाए थे, पर वे पैसे चले गए। अब मेरी पुत्री का विवाह कैसे होगा? मैं अपने परिवार का पेट कैसे भरूंगा... सब कुछ खत्म हो गया...।"
राजा ने अपने सेवकों से कहा, "पता करो कि किसने इसे लूटा है?"
यह सुनकर बूढ़ा तुरंत बोला, "हुजूर, आपने मुझे लूटा है।" “मैंने! मूर्ख, मैं तुम्हारा राजा हूं। थोड़े से पैसे के लिए मैं तुम्हें लूंटूगा...!" परेशान होते हुए राजा ने कहा।
बूढ़े ने कहा, "कल रात मैंने सपना देखा कि आप अपने सेवकों के साथ मेरे घर आकर जबरदस्ती सब लूटकर ले गए हैं। मैं बहुत गरीब हूं हुजूर... थोड़ी तो दया कीजिए...।"
क्रोध से राजा बोला, "तुम पागल तो नहीं हो? सपने भी सच होते हैं क्या?"
बूढ़े आदमी ने कहा, "क्यों हुजूर, अगर आपका उड़ने वाले महल का सपना सच हो सकता है, तो मेरा सपना सच क्यों नहीं हो सकता...?"
राजा आश्चर्यचकित रह गया। उसने शर्मिंदा होकर बूढ़े आदमी को धन्यवाद दिया।
बूढ़े आदमी ने धीरे से अपनी दाढ़ी मूछें उतार दीं और राजा का अभिवादन किया। वह बूढ़ा और कोई नहीं खुद तेनालीराम था। तेनालीराम की चतुराई देखकर पूरा दरबार तालियों से गूंज उठा।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 10 - अनोखा वैवाहिक निमंत्रण
एक समय की बात है, विजयनगर पर राजा कृष्णदेव राय का शासन था तथा दिल्ली पर सुलतान आदिलशाह का। सुलतान आदिलशाह कृष्ण देव के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। वे युद्ध का बहाना ढूंढते रहते थे। एक बार उन्होंने एक योजना बनाई।
सुबह का समय था, विजयनगर में दरबार सजा हुआ था। तभी दिल्ली का एक दूत राजा के पास विवाह का निमंत्रण लेकर आया। निमंत्रण पत्र पढ़ते ही भय और चिंता से राजा की आंखें खुली की खुली रह गयीं। निमंत्रण कुछ इस प्रकार था-हमारे यहां एक नए कुएं का विवाह सम्पन्न होने जा रहा है। इस समारोह के लिए विजयनगर के सभी कुएं सप्रेम आमंत्रित हैं। यदि आप अपने कुओं को भेजने में असमर्थ हैं, तो दिल्ली इस बात का बुरा मानेगी तथा इसका अंजाम आपको भुगतना पड़ेगा।
शांतिप्रिय राजा युद्ध नहीं चाहते थे। पर भला वे कुओं को कैसे भेजते... कृष्णदेव ने तेनालीराम को बुलाकर अपनी समस्या बताई और कोई समाधान निकालने के लिए कहा।
तेनालीराम निमंत्रण पत्र पढ़कर हंसता हुआ बोला, "सुलतान मजाक अच्छा कर लेते हैं। आप चिंतित न हों महाराज, मैं इसका उत्तर दूंगा।"
अगले दिन तेनालीराम एक पत्र लेकर आया। पत्र में लिखा था
सेवा में,
दिल्ली के सुलतान,
महाराज,
आपकी दयालुता है कि आपने अपने कुएं के विवाह का निमंत्रण हमारे कुओं को भेजा है। हम लोग इस निमंत्रण को पाकर बहुत प्रसन्न और आभारी हैं। आपका निमंत्रण हमने अपने राज्य के कुओं को पहुंचा दिया है। उन्होंने कहा है, क्योंकि आपके राज्य के कुएं हमारे राज्य के कुओं के विवाह में सम्मिलित नहीं हुए थे, इसलिए हम भी नहीं आना चाहते हैं।
फिर भी हम लोगों का यह सुझाव है कि यदि व्यक्तिगत रूप से आपके कुएं विजयनगर आकर हमारे कुओं को निमंत्रित करें, तो निश्चित रूप से हमारे कुएं निमंत्रण को स्वीकार करेंगे। इसलिए यदि आप अपने कुओं को विवाह का निमंत्रण लेकर हमारे कुओं के पास भेज दें, तो हमारे लिए बहुत सम्मान की बात होगी। एक बार आपके कुएं यहां आ जाएं, तब हमारे कुएं और हम सब भी जरूर विवाह में सम्मिलित होने दिल्ली आएंगे। आपके कुओं की प्रतीक्षा में...
पत्र सुनकर राजा कृष्णदेव ने चैन की सांस ली। दूत के द्वारा पत्र का उत्तर दिल्ली भेज दिया गया। दरबार तेनालीराम की जय-जयकार से गूंज उठा।
सुलतान आदिलशाह अपने पत्र का उत्तर पाकर समझ गए कि उनसे गलती हुई है।
विजयनगर के प्रति शत्रुता का भाव त्याग दिया। उन्होंने मन ही मन यह निश्चय भी किया कि अब कभी राजा कृष्णदेव राय के प्रति ऐसा दांव नहीं चलेंगे।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 11 - ईमानदार कौन?
राजा कृष्णदेव राय एक दिन अपने दरबार में बैठे थे। दरबार में बहस हो रही थी "अमीर और गरीब के बीच कौन अधिक ईमानदार है।"
राजगुरु ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, "महाराज, अमीर आदमी ही अधिक ईमानदार होगा। वह अमीर तो है ही, फिर थोड़े से धन के लिए बेइमानी क्यों करेगा?"
राजगुरु के उत्तर से राजा संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने तेनालीराम से पूछा। तेनालीराम ने कहा, "महाराज मेरा विचार थोड़ा अलग है। मेरे विचार से एक गरीब आदमी भी ईमानदार हो सकता है।"
राजा ने तेनालीराम को उसकी बात को सिद्ध करने के लिए कहा। तेनालीराम ने थोड़ा समय तथा स्वर्ण अशर्फियों से भरा हुआ एक थैला मांगा।
राजा से स्वर्ण अशर्फियां लेकर तेनालीराम ने उसे दो छोटे थैलों में डाल दिया और जिस रास्ते से शहर का अमीर आदमी प्रतिदिन नदी पर स्नान के लिए जाता था, उस रास्ते पर एक थैला तेनालीराम ने रख दिया। स्नान के लिए जाते समय अमीर आदमी ने थैला देखकर गाड़ी रोकी और थैला उठा लिया। उसने थैला खोला तो उसमें स्वर्ण अशर्फियां थीं। लक्ष्मी माँ की कृपा मानकर उसने चुपचाप थैला रख लिया। तेनालीराम एक पेड़ के पीछे छुप कर सब देख रहा था। अगले दिन दूसरा थैला उसने गरीब आदमी के खेत जाने वाले रास्ते में रख दिया। गरीब आदमी ने थैला खोला, तो उसमें स्वर्ण अशर्फियों को देखकर सोचा "जरूर ही यह किसी की मेहनत की कमाई है, जो गिर गई है। कुछ भी करके मुझे इस थैले को उस आदमी तक पहुंचाना होगा। गरीबी के दिन बहुत बुरे होते हैं और मैं नही चाहता हूं कि उस आदमी को बुरे दिन देखने पड़ें..."
वह गरीब आदमी स्वर्ण अशर्फियों का थैला लेकर सीधे शाही खजांची के पास गया और वहां उसे जमा करा दिया। तेनालीराम सब कुछ छुपकर देख रहा था। गरीब आदमी के व्यवहार से वह बहुत संतुष्ट हुआ।
दरबार में आकर उसने राजा को सारी बात बताई। राजा ने अमीर तथा गरीब आदमियों को बुलवाया। उन्होंने गरीब आदमी को पुरस्कार दिया तथा अमीर व्यक्ति को दंड दिया और साथ ही उसे जुर्माना भी भरना पड़ा।
एक बार फिर से राजा ने तथा सभी दरबारियों ने तेनालीराम की चतुराई की प्रशंसा करी।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 12 - सबसे बड़ा मूर्ख
विजय नगर के राजा कृष्णदेव राय को घोड़ों का बहुत शौक धा। एक दिन एक अरबी घोड़ों का व्यापारी राजा के पास पहुंचा और कहा, "महाराज, मैं अपने देश से कुछ घोड़े लाया हूं। क्या आप उन्हें खरीदना चाहेंगे?"
राजा को एक तगड़ा घोड़ा दिखा, जो खुद व्यापारी का था। राजा ने जानना चाहा कि व्यापारी के पास किस तरह के घोड़े हैं। व्यापारी ने कहा, "महाराज, मैं बीस घोड़ों को बेचने के लिए लाया हूं। उनमें से सबसे अच्छी नस्ल और मजबूत कदकाठी वाला आपके सामने है। सिर्फ एक नमूने के रूप में मैं लाया हूं, क्योंकि सभी बीस घोड़ों को विजयनगर लाना मुश्किल था। अगर आपको यह पसंद है, तो मैं सभी बीस घोड़े आपको पांच हजार सोने के सिक्कों में बेच सकता हूं।"
राजा बहुत खुश हुए। वास्तव में उन्हें वह घोड़ा पसंद आ गया था। उन्होंने सोचा, "क्या अद्भुत दृश्य होगा, जब बीस के बीस घोडे मेरे पास होगें। मेरा अस्तबल पूरे देश में सबसे अच्छा अस्तबल हो जाएगा।" इसलिए वह व्यापारी के प्रस्ताव पर सहमत हो गए। लेकिन व्यापारी ने कहा, "एक बात है, मैं चाहूंगा कि आप मुझे सारी राशि अभी दे दें। मैं उस पैसे के बदले में बाकी के बीस घोड़े जल्दी ही लेकर आ जाऊंगा, यह मेरा वादा है।" हालांकि राजा इस बात के लिए राजी नहीं थे, लेकिन उन्होंने उस आदमी को पूरी राशि पहले दे दी। व्यापारी ने वह राशि ली और चलता बना।
उसके बाद बहुत महीने बीत गए और अरबी व्यापारी का कोई भी अता-पता नहीं चला। राजा अधीर हो गए। एक दिन जब वह अपने महल के चारों ओर घूमते हुए बगीचे में टहल रहे थे, तब उन्होंने देखा कि तेनालीराम एक कागज के टुकड़े पर कुछ लिख रहा है।
राजा ने पूछा, "आप क्या लिख रहे हैं?" तेनालीराम ने कहा, "महाराज, मैं अपने नगर के मूखों की एक सूची बना रहा हूं।" राजा ने कहा, "मुझे भी दिखाओ।" तेनालीराम ने उत्तर दिया, "मैं क्षमा चाहता हूं महाराज, मैं इसे आपको नहीं दिखा सकता हूं।" राजा ने पूछा, "क्यों?" तेनाली चुप ही रहा। राजा ने कागज उसके हाथ से छीन लिया।
वह सूची पढ़ते ही चौंक गये और क्रोध में आकर चिल्लाए, "तेनालीराम, तुम्हारी इतनी हिम्मत? अपने राजा के नाम को इस सूची में सबसे ऊपर दिखाने की तुमने हिम्मत कैसे की?"
तेनालीराम ने शांति से जवाब देते हुए कहा, "क्योंकि महाराज, एक अजनबी को पांच हजार सोने के सिक्के देकर उसके वापिस आने की आशा करने वाला महामूर्ख ही माना जाएगा।"
राजा ने कहा, "तुम यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हो कि वह वापस नहीं आएगा? और अगर वह वापस आएगा, तो?" तेनालीराम ने कहा, "तो महाराज, मैं आपका नाम सूची से निकाल दूंगा और उसका नाम लिख दूंगा।" राजा ने तेनालीराम से आगे प्रश्न नहीं किया। उन्होंने सूची को वापिस तेनालीराम को सौंप दिया और बगीचे से दूर चले गये।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 13 - काशी का विद्वान्
एक बार राजा कृष्णदेव राय के दरबार में काशी के एक प्रसिद्ध विद्वान् आए। उन्होंने भारत भ्रमण किया हुआ था और कई विषयों में पारंगत थे। उन्हें दूसरे विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ में बहुत आनंद आता था। साथ ही उन्हें इस बात का घमंड भी था कि कोई उन्हें हरा नहीं सकता।
राजा ने उनका भव्य स्वागत किया और आदरपूर्वक अपने महल में रुकने का अनुरोध किया। राजा का अनुरोध स्वीकार कर वे एक महीने तक महल में रुके। पर शीघ्र ही बिना किसी चर्चा के वे ऊबने लगे और उन्होंने राजा से कहा, "महाराज, मैंने सुना है कि आपके दरबार में बहुत सारे विद्वान् हैं। मैं उनके साथ शास्त्रार्थ करना चाहता हूं। यदि मैं हारूंगा तो अपनी सारी उपाधि दे दूंगा और अगर जीतूंगा तो उन लोगों को मुझे अपना गुरु मानना पड़ेगा।"
राजा हैरान थे। उन्होंने अपने अष्ट दिग्गजों को बुलवाया। उनमें से सात आए पर वे भी विद्वान् के प्रस्ताव से परेशान थे। कोई भी इस चुनौती को स्वीकार नहीं करना चाहता था। राजा ने तेनालीराम को बुलवाया। वह अपने बगीचे में पौधों की देखभाल कर रहे थे, वे भागे-भागे दरबार में उपस्थित हुए।
राजा ने जब तेनालीराम से शास्त्रार्थ में शामिल होने के लिए कहा, तो तेनाली ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
काशी के विद्वान् अगले दिन सफेद सिल्क की धोती पहने, अपने पदकों से सजकर दरबार में पहुंचे। प्रतियोगिता की सारी तैयारी हो चुकी थी। उन्होंने अपनी पैनी नजर अपने प्रतियोगियों पर डाली।
सातों विद्वानों ने तेनालीराम का यश गीत गाते हुए दरबार में प्रवेश किया। उनके पीछे तेनालीराम था। उसने सिल्क की सफेद धोती तथा जरी वाला शॉल ओढ़ रखा था। गले में कीमती रत्न जड़ित पदक, माथे पर लाल तिलक तथा हाथ में सुंदर कपड़े में मढ़ा हुआ एक मोटा सा ग्रंथ था। उसके कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। सेवक सोने की ईंट रखता था फिर तेनालीराम उस पर अपने पैर रखता था।
काशी का विद्वान् इस दृश्य को देखता ही रह गया। तेनालीराम ने अपना आसन ग्रहण किया, ग्रंथ खोला और गर्वीले स्वर में पूछा, "वह कौन विद्वान् है जो मुझसे शास्त्रार्थ करना चाहता है?"
काशी के विद्वान् को तेनालीराम का रूप देखकर एक झटका सा लगा, पर ऊपर से शांत भाव से खड़े होकर बोला, "मैं हूं वह विद्वान्।"
राजा ने शास्त्रार्थ प्रारम्भ करने का आदेश दिया। तेनालीराम ने अपने साथ लाए ग्रंथ पर काशी के विद्वान् को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया। विद्वान् ने पूछा, "क्या मैं जान सकता हूं यह कौन सा ग्रंथ है?"
"तिलाकाष्ठमहिषबंधन", तेनालीराम ने कहा।
काशी के विद्वान् ने इस ग्रंथ के बारे में पहले कभी नहीं सुना था। उसने सोचा, "मैंने इस ग्रंथ के बारे में कभी सुना ही नहीं है, इसलिए मुझे इस शास्त्रार्थ से दूर ही रहना चाहिए। वैसे भी इस व्यक्ति को देखकर लगता है कि यह मुझे आसानी से हरा देगा।" आदरपूर्वक राजा का अभिवादन कर उसने कहा,
"महाराज, मुझे अच्छी तरह से याद है, मैंने काफी समय पहले इस ग्रंथ का अध्ययन किया था। कृपया मुझे शास्त्रार्थ के लिए एक दिन का समय दीजिए ताकि मैं अपनी धूल झाड़ सकूं।" राजा ने अपनी स्वीकृति दे दी और काशी के विद्वान् अपने कमरे में लौट गये।
उन्होंने शीघ्रतापूर्वक अपना सामान समेटा और रातोंरात अपने शिष्यों के साथ चुपचाप महल छोड़कर चलते बने।
अगले दिन यह समाचार सुनकर राजा आश्चर्यमिश्रित हंसी हंसने लगे। उन्होंने तेनालीराम को इस शुभ समाचार को देने के लिए बुलवाया। तेनालीराम के आने पर राजा ने पूछा, "वह कौन सा ग्रंथ था, जिसने विद्वान् को इतना भयभीत कर दिया?"
तेनालीराम ने कहा, "महाराज कोई ग्रंथ नहीं था। एक खाली पुस्तिका (नोटबुक) थी। जिस पर मैंने सिल्क की जिल्द लगा दी थी।"
राजा ने कहा, "अच्छा तो तुमने विद्वान् से झूठ कहा। तुम्हारे जैसे विद्वान् को यह शोभा नहीं देता है।"
"महाराज, मैंने कोई झूठ नहीं कहा है। देखिए, यह तिल के पौधे की शाखा है इस पर मैंने भैंस के गले में बांधने वाली रस्सी बांध रखी है, "अपने पुस्तक से एक बंधी हुई शाखा निकालकर दिखाते हुए तेनालीराम ने आगे कहा, "संस्कृत में 'तिला' का अर्थ होता है तिल, 'काष्ठा' अर्थात् लकड़ी, 'महिष' अर्थात् भैंस और 'बंधन' जो उसे बांधता है, इसीलिए मैंने इसे तिलाकाष्ठमहिषबंधन कहा था।"
राजा जोर-जोर से हंसने लगे। हंसते-हंसते वे बोले, "उस विद्वान् को तुमने अच्छा पाठ पढ़ाया है।" तेनालीराम को उसकी चतुराई के लिए राजा ने पुरस्कृत किया।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 14 - स्वर्ग की कुंजी
एक बार राजा कृष्णदेव राय के राज्य में एक साधु आया। लोगों के बीच में अफवाहें फैली हुई थी कि वह ऋषि चमत्कार कर सकता है, इससे सभी खुश थे। आस-पास और दूर के लोग धन और भोजन लेकर ऋषि के दर्शन करने वहां चले आए।
तेनालीराम इस समाचार से संतुष्ट नहीं था। उसने महसूस किया कि कुछ बात निश्चित रूप से गलत है। इसलिए उसने खुद ही सब कुछ जांचने का फैसला किया। वह उस जगह पहुंच गया, जहां कई लोग एक रस्म के लिए इकट्ठे हुए थे। साधु उनके बीच में अपनी आंखें बंद करके बैठा कुछ बुदबुदा रहा था।
तेनालीराम ने साधु के होंठों के हिलने की गति से यह जानने का फैसला किया कि वह कौन सा मंत्र पढ़ रहा है? तेनालीराम एक विद्वान् था। वह जल्द ही समझ गया कि साधु एक धोखेबाज है और कुछ नहीं हैं, क्योंकि मंत्र उच्चारण के रुप में वह कुछ अनाप-शनाप कह रहा था। उसने साधु को सबक सिखाने का निर्णय किया।
वह अपने आसन से उठकर साधु के पास चला गया और वह साधु की दाढ़ी से एक लहराते बाल को खींच कर बोला, "मुझे स्वर्ग में जाने के लिए कुंजी मिल गयी है।" उसने घोषणा की "ये साधु एक महान मनुष्य हैं। अगर आप इनकी दाढ़ी से एक बाल लेकर अपने पास रखेगें, तो आप मरने के बाद सीधे स्वर्ग जाएंगे।"
साधु जो अभी अपनी दाढ़ी के खिंचने से लगी चोट के कारण सदमे में था, उसे ये एहसास हो गया कि अब उसके साथ क्या होने वाला है। वह अपनी जान बचाने के लिए सरपट भागने लगा और लोग भी उसका पीछा करते हुए उसके पीछे भागने लगे।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 15 - तेनाली और सुलतान आदिलशाह
कभी विजयनगर पर राजा कृष्णदेव राय का शासन था और दिल्ली पर सुलतान आदिलशाह का। एक बार दोनों के बीच युद्ध छिड़ गया। युद्ध काफी दिनों तक चला और काफी लोगों की जानें गई। थककर दोनों राजाओं ने समझौता करने का विचार किया। दिल्ली के सुलतान आदिलशाह ने राजा कृष्णदेव राय को संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए आमंत्रित किया। कृष्णदेव अपने दरबारियों के साथ दिल्ली गए।
दिल्ली में राजा कृष्णदेव और उनके साथियों का भव्य स्वागत हुआ। अच्छी साज-सज्जा, अच्छा खान-पान और आराम का पूरा प्रबन्ध था। राजा कृष्णदेव बहुत ही प्रभावित हुए। उनकी नजरों में आदिलशाह का कद बहुत बढ़ गया।
एक दिन रात्रि के भोजन के समय आदिलशाह ने हिन्दू पौराणिक कथाओं को सुनने की इच्छा जताई। एक विद्वान् ने आकर महाभारत की कथा का कुछ भाग उन्हें सुनाया। हस्तिनापुर के लिए कौरव और पांडवों की लड़ाई का कुछ भाग सुनने पर आदिल शाह ने कृष्णदेव राय से कहा, "मैंने आपके दरबार के विद्वानों के बारे में बहुत सुन रखा है। मैं चाहता हूं कि वे दोबारा महाभारत लिखें, जिसमें मैं और मेरे मित्र पांडव हों तथा आप और आपके मित्र कौरव हों।"
राजा कृष्णदेव राय बहुत सोच में पड़ गए। वे मन ही मन सोचने लगे, "भला यह कैसे संभव है। महाभारत जैसे पवित्र ग्रंथ को दुबारा कैसे लिखा जा सकता है?" परंतु वह सुलतान को मना नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने शांत भाव से सुलतान से वादा किया कि वे अपने विद्वानों से इस बारे में बात करेंगे।
अपने राज्य वापस आकर उन्होंने विद्वानों की सभा बुलाई। इस बात को सुनकर सभी चिंतित हो गए। इस समस्या का किसी के पास कोई समाधान नहीं था। अचानक राजा को तेनाली राम की याद आई। उन्होंने कहा, "तेनाली राम तुमने हमारी बहुत सारी समस्याओं का समाधान किया है। इस समस्या का समाधान बताओ।"
तेनाली राम ने सिर झुकाकर कहा, "आप मुझे एक दिन का समय दें, मैं इस समस्या का समाधान ढूंढता हूं।"
राजा के पास कोई और उपाय तो था नहीं। वे तेनाली राम के उपाय की प्रतीक्षा करने लगे।
अगले दिन तेनाली राम सुलतान आदिलशाह के दरबार में पहुंचे और हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से बोले, "हुजूर, आपके अनुरोध पर हमारे कुछ विद्वानों ने महाभारत की रचना शुरू कर दी है। पर थोड़ी सी समस्या है...।"
सुलतान के समस्या पूछने पर तेनालीराम ने कहा कि वह उन्हें अकेले में समस्या बताना चाहते हैं। दरबार में इस विषय पर बात करना उचित नहीं है।
सुलतान ने शाम के समय तेनालीराम को बुलावा भेजा। आदरपूर्वक उन्हें नमस्कार कर तेनालीराम बोले, "हुजूर, आपने
महाभारत लिखने के शुभ कार्य का जो दायित्व हम पर सौंपा है, वह हमारे लिए बहुत ही सम्मान की बात है। पर थोड़ी सी समस्या है। महाभारत में पांडव पांच भाई थे, पर उनका विवाह एक ही औरत 'द्रौपदी' से हुआ था। आपने अनुरोध किया था, आपको उदार बड़े भाई के रूप में चित्रित किया जाए तथा आपके मित्रों को आपके चार भाई के रूप में। अपनी प्रतिष्ठा को सोचते हुए हम लोग ऐसा करने में खुद को...।"
तेनालीराम के वाक्य पूरा करने से पहले ही सुलतान ने तेनाली राम को रोक दिया और क्रोधित होते हुए बोले, "यह सही नहीं है। मुझे महाभारत नहीं लिखवाना है, कृपया अपने आदमियों को लिखने से मना कर दो।"
तुरंत "लेकिन हुजूर..." तेनाली ने कुछ कहना चाहा, पर आदिलशाह उसे रोकते हुए बोले, “देखो कवि, मैं इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता। यदि तुम शांति चाहते हो तो तुरंत इस काम को रुकवा दो। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि दिल्ली और विजयनगर में सौहार्द्र बना रहे" यह कहकर आदिलशाह एक झोंके की
तरह कमरे से निकल गये। तेनालीराम ने जाकर अपने राजा को यह शुभ समाचार दिया। सबने तेनालीराम की चतुराई की प्रशंसा की।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 16 - अदृश्य वस्त्र
एक दिन राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक बहुत ही खूबसूरत महिला आई। उसकी सुंदरता को देखकर जो जहां था वहीं गूंगा होकर मूर्ति की तरह खड़ा रह गया। महिला राजा के पास पहुंचकर सादर अभिवादन कर बोली, "महाराज, मैं एक बुनकर हूं। हम लोग बुनने की जादुई कला में पारंगत हैं। मैं आपके लिए एक नमूना लाई हूं..." यह कहकर उसने माचिस की डिबिया से एक सिल्क की साड़ी निकाली। साड़ी का मुलायम और हल्का कपड़ा देखकर राजा हैरान रह गया।
राजा ने खुश होकर कहा, "यह तो हवा की तरह है।" वह बोली, "जी महाराज, एक विशेष तकनीक से इस नायाब वस्त्र को बनाया गया है। हमलोग एक नई योजना पर काम कर रहे हैं। हम लोग एक ऐसा वस्त्र बुन रहे हैं, जो इस साड़ी से भी हल्का, पतला और मुलायम होगा। हम लोग उसे ईश्वरीय वस्त्र कहते हैं। क्योंकि अभी तक उसे केवल देवताओं ने ही पहना है।"
राजा और सभी दरबारी बड़े ही ध्यान से महिला की बातें सुन रहे थे। राजा ने कहा, “ठीक है, मैं इस योजना के लिए धन दूंगा, पर योजना पूरी होने पर वस्त्र का नमूना आप मुझे उपहार स्वरूप देंगी।"
महिला राजी हो गई। राजा ने उसे स्वर्ण मुद्राओं से भरा एक बड़ा सा थैला दे दिया। थैले को लेकर वह प्रसन्नतापूर्वक चली गई।
बहुत महीने बीत गए, पर महिला का कुछ पता नहीं था। राजा परेशान होने लगे। राजा ने अपने कुछ मंत्रियों और सेवकों को काम की प्रगति को देखने भेजा। उसकी कार्यशाला में जाकर सभी चकित रह गए। वहां लूम पर सात व्यक्ति पूरी तन्मयता से वस्त्र बुन रहे थे। वे इतने तन्मय थे कि उन्हें इनके आने का पता भी नहीं चला। लूम तो था, पर धागा कहीं दिखाई नहीं दिया और न ही कोई बुना हुआ वस्त्र । हैरान परेशान मंत्री और सेवक लौट आए और यह आश्चर्यजनक बात उन्होंने राजा को बताई। क्रोधित राजा ने तुरंत महिला को बुलवाया।
महिला के साथ कई लड़कियां खाली थाल लेकर आई। राजा का अभिवादन कर महिला ने कहा, "महाराज मैं आपके लिए वस्त्रों का नमूना लाई हूं।" यह कहकर उसने सेविकाओं से थाल राजा को देने का इशारा किया और बोली, "महाराज, यह ईश्वरीय वस्त्र का नमूना है। यह आम आदमी के लिए अदृश्य है पर जो बुद्धिमान और चतुर है वही इसकी सुंदरता और भव्यता को समझ सकते हैं।"
महिला की बातें सुनकर मंत्री और सेवक सभी हैरान रह गए। उन्होंने अपने मन में सोचा कि इस समय यदि उन्होंने कुछ भी कहा तो वे चतुर नहीं बल्कि मूर्ख कहलाएंगे। उन्होंने भी मूर्ख कहलाने से बचने के लिए एक चाल चली। वे राजा के पास जाकर बोले, "महाराज, यह कपड़ा कितना बढ़िया और कीमती है। इसकी कढ़ाई तो कमाल की है। इतनी नायाब चीज तो बस एक राजा को ही शोभा देती है।"
राजा यह सुनकर परेशानी में पड़ गए। यदि वह कहते कि उन्हें वस्त्र दिख नहीं रहा है तो वे मूर्ख कहलाते। यदि वे कहते हैं कि उन्हें वस्त्र दिख रहा है, तो महिला उन्हें मूर्ख बनाकर सारे पैसे हड़प कर जाती। राजा ने तेनालीराम से सलाह करने का सोचा। उन्होंने इशारे से तेनालीराम को पास बुलाया और सारी बात बताकर उसकी सलाह मांगी।
तेनालीराम मुस्कराए और उन्होंने महिला से कहा, “मोहतरमा, हम आपकी कला की कद्र करते हैं। उपहार रूपी इस ईश्वरीय वस्त्र को स्वीकार करके हमें बहुत प्रसन्नता हो रही है। पर महाराज की इच्छा है कि आप इसे दरबार में पहनकर दिखाएं, जिससे सभी इसकी सुंदरता को देखकर इसकी प्रशंसा कर सकें।
महिला समझ गई कि उसकी चाल उसी पर उल्टी पड़ गई है। अब उसके सामने दो ही उपाय थे-या तो वह अपनी गलती स्वीकार करे या फिर निर्वस्त्र होकर लोगों के सामने आए। वह राजा के पैरों पर गिर पड़ी और माफी मांगने लगी। दयालु राजा ने उस महिला को क्षमा कर दिया। पर उसे स्वर्ण मुद्राओं
का बड़ा थैला वापस लौटाना ही पड़ा, जो उसने राजा से लिया था।
तेनालीराम की कहानियां - कहानी 17 - रामायण पाठ
जब राजा कृष्णदेव राय विजयनगर राज्य पर शासन करते थे, उस समय विक्रम सिम्हापुरी नामक एक छोटे से शहर की गणिकाओं के बारे में बहुत बातें होती थीं, जो बहुत चालाक और क्रूर थीं। उनमें सबसे चालाक कंचनमाला थी।
एक बार कंचनमाला ने एक विद्वान् को रामायण गायन के लिए चुनौती देते हुए शर्त रखी कि गायन ऐसा होना चाहिए, जिससे वह पूरी तरह संतुष्ट हो। अगर वह कहेगी कि, वह संतुष्ट है, तब ही विद्वान् की जीत मानी जाएगी और अगर वह नहीं कहेगी, तो उस विद्वान् को उसका गुलाम बनना पड़ेगा।
हर कोई जानता था, कंचनमाला कभी नहीं कहेगी कि वह संतुष्ट है। इसी तरह से उसने कई विद्वानों को गुलाम बनाया था।
एक दिन तेनालीराम ने फैसला किया कि वह उस महिला को उसके बनाए खेल में हराएगा और उन सभी गुलाम लोगों को मुक्त करवाएगा। उसने अपना वेश बदला और कंचनमाला के घर गया। वहां पहुंचने पर उसने घोषणा की, "मैं कंचनमाला की करने के लिए आया हूं।" चुनौती स्वीकार
कंचन माला ने पूछा, "क्या तुम्हें मेरी शर्तों के बारे में पता है?" तेनालीराम ने सहमति दी और गायन शुरू हो गया। जिस कमरे में वे बैठे थे, उसे सुगंधित मोमबत्तियों से महकाया और मुलायम साटन के कपड़े से सजाया गया था। तेनालीराम ने रामायण सुनानी शुरू कर दी। तेनालीराम ने बहुत ही सुंदरता से वर्णन किया कि, किस प्रकार राजा दशरथ अपने सबसे बड़े पुत्र राम को वन में भेजने के लिए मजबूर हो गए और कैसे उनकी पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण भी उनके साथ वन को चले गए। तेनालीराम ने अपने गायन में मधुरता भरते हुए उनके वन्य जीवन का वर्णन किया और नाटकीय रूप से बताया कि कैसे दुष्ट रावण ने राम की पत्नी सीता का अपहरण किया।
लेकिन यह सब बेकार हो गया, जब कंचनमाला एक जोरदार जम्हाई लेकर अपने नरम बिस्तर पर लेट गई। क्योंकि यह लग रहा था कि वह ऊब गई थी।
तेनालीराम ने फिर गा बजाकर नाटकीय रुप में बताया कि कैसे श्री राम और लक्ष्मण, सीता जी के खो जाने पर दुःख में डूबकर वन-वन भटक रहे थे। तभी वे वानरों के एक समूह से मिले। जिसमें से राम के भक्त वानर हनुमान ने दुष्ट राजा रावण के शहर, लंका में जाकर श्रीराम का संदेश सीता को दिया।
कंचनमाला ने करवट बदलते हुए कहा, "मैं संतुष्ट नहीं हूं। तुम सचमुच एक उबाऊ आदमी हो, मेरी इच्छा तो सजीव नाटक देखने की थी।"
अचानक तेनालीराम अपने आसन से छलांग लगाकर जहां कंचनमाला बैठी थी, वहां बैठ गया। उसने कहा, "जानती हो इस प्रकार हनुमान जी ने एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंचने के लिए छलांग लगाई थी," और उसके बाद वह कंचनमाला के बिस्तर से पास के दूसरे बिस्तर पर छलांग मार कर पहुंच गया।
"इस तरह हनुमानजी ने विशाल समुद्र को पार किया था," तेनाली ने कहा और फिर से उसने कंचनमाला पर छलांग लगा दी। कंचनमाला डरकर जोर से चिल्लाई। तेनाली ने कहा, "इस प्रकार हनुमान जी हर उस व्यक्ति से लड़े थे, जिसने उन्हें पकड़ने की कोशिश की थी," और इसी के साथ उसने कंचनमाला को मुक्के मारना शुरू कर दिया। वह दर्द के साथ कराहने लगी।
तब तेनालीराम ने एक मोमबत्ती ली और कहा, "जैसे हनुमान जी ने पूंछ में आग लगाई थी और पूरी लंका नगरी को आग की भेंट कर दिया था, ऐसा ही सजीव नाटक मैं तुमको दिखाऊंगा," और ऐसा कहकर तेनालीराम पर्दा और कालीन को आग लगाने लगा। क्षण भर में ही कमरे में आग लग गई।
बेचारी कंचनमाला अपनी जान बचाने के लिए घर छोड़ कर भागने लगी। अगले दिन कंचनमाला अदालत में गई और तेनाली के खिलाफ शिकायत की। जब राजा ने तेनालीराम से पूछा, तो उसने कहा, "महाराज, इस महिला ने कई विद्वानों को बेवकूफ बनाकर गुलाम बना लिया है।"
राजा ने तेनालीराम के पक्ष में अपना निर्णय दिया। कंचनमाला ने सभी गुलाम लोगों को मुक्त कर दिया।
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